( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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कबीर के समाज दर्शन की प्रासंगिकता

    1 Author(s):  DR. DHEERENDRA KUMAR

Vol -  11, Issue- 9 ,         Page(s) : 254 - 257  (2020 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

कबीर का अविर्भाव जैसे इन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों का एक आग्रहपूर्ण आमंत्रण था। कबीर ने धर्म और समाज के संघटन के लिए समस्त बाहा्रचारों का अंत करने और प्रेम से समान धरातल पर रहने का एक सर्वसामान्य सिद्धांत प्रतिपादित किया। 1 कबीर का जन्म निराशा तथा हतोत्साह के वातावरण में हुआ था। उस समय विषमताएँ, नैराश्य, विश्वासघत तथा विसंगतियाँ व्याप्त थी। समाज में कुत्सित विचारों तथा बाह्य आडम्बरों का बाहुल्य था। धर्म के ठेकेदार मठाधिश बनकर आनाचार का जीवन व्यतीत कर रहे थे। सामाजिक विषमताओं से तंग आकर निम्नजाति के लोग धर्म-परिवर्तन पर उतारू हो गए थे। आर्थिक विपन्नताओं से सामान्य जनता की रीढ़ ही टूट गई थी।

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