International Research journal of Management Sociology & Humanities
( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH
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वेद में योग और साधना पद्धति
1 Author(s): DR. HARI KISHOR ARYA
Vol - 11, Issue- 2 , Page(s) : 169 - 173 (2020 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
‘योग‘ शब्द सामान्यतः सम्बन्धवाचक है, परन्तु योग शास्त्र में ‘योग‘ का अर्थ है- समाधि। ‘योग‘ शब्द ‘युज’ धातु के बाद करण और भाववाच्य में ध´् प्रत्यय लगाने से बनता है। ‘युज्’ धातु का अर्थ है समाधि। अतएव ‘योग’ शब्द का वास्तविक अर्थ समझने के लिए ‘समाधि’ शब्द का भी वास्तविक अर्थ समझने की थोड़ी चेष्टा करनी होगी। ‘समाधि’ शब्द का अर्थ सम्यक् प्रकार से परमात्मा के साथ मिल जाना; जीव का कामना, वासना, आसक्ति, संस्कार आदि सब प्रकार की आगन्तुक मलिनता को दुर कर स्वरूप में प्रतिष्ठित होकर मुख्य भाव से भगवान् में मिल जाना। ‘योग‘ शब्द का अर्थ है जीव और ब्रह्म का पूर्ण रूप से मिलन अर्थात् विजातीय, स्वजातीय एवं स्वगत भेद से रहित होकर जीव और ब्रहम का एकत्व प्राप्त कर लेना-भगवान् के साथ, भगवद् विधान के साथ सम्पूर्ण रूप में ताल-ताल पर मिल जाना एक हो जाना। जिस अवस्था में भगवान् के अस्तित्व के सिवा हमारा पृथक् अस्तित्व ही नहीं रह जायगा, भगवान् की ईच्छा पूरी करने के अतिरिक्त हमारे जीवन में दुसरा कोई काम नहीं रह जाएगा। एक शब्द में जिस अवस्था में भगवान की सत्ता चैतन्य और आनन्द अपने आप हमारी वाणी, भाव और कार्य के द्वारा पूर्ण रूप से प्रस्फुटित होकर प्रकट हो जाए, उसी का नाम ‘योग‘ है।