( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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संत साहित्य: जीवन दृष्टि और मानवी-संवाद की प्रगतिशील काव्यधारा

    1 Author(s):  DR. BHARTI M. SANAP

Vol -  5, Issue- 4 ,         Page(s) : 459 - 463  (2014 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

भारतीय संत साहित्य मनुष्य-जीवनरूपी चैतन्यमयी भावधारा का सतत प्रवहमान एवं् प्रगतिशील स्त्रोत माना जाता है। इसे जीवन की गतिशीलता का अध्यात्मरूपी साधन-तत्व कहां जाता है। संत साहित्य की सत् और साधन भावभूमि सामाजिक-जीवन दृष्टि का निर्माण करती है। समाज की सामाजिक-व्यवस्था को सही अर्थ में व्यवस्था के रूप में बनाये रखने के लिये आवश्यक नैतिक-सद्भाव एवं् मनुष्य में मानवीयता के बीज बोने में संत साहित्य का अनन्य साधारण योगदान रहा है। सामान्य जीव की उत्पत्ति के उपरांत उसके मनुष्य से मानव बनने की प्रक्रिया का मूल आधार संतों द्वारा अर्थात् संत-कवियों द्वारा लिखित साहित्य है। मनुष्य के पशुविहीन संवेदनशील व मानवयीता से पूर्ण बनने में यह संत साहित्य युगों से संस्कार को देते हुये प्रासंगिक बना हुआ है।

1. भक्तिकाव्य का समाजदर्शन, प्रेमशंकर, पृ. सं. 17
2. संस्कार-साहित्य, भाग-1, संपा. यशपाल जैन, पृ. सं. 79-80
3. कबीर, आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ. सं. 185
4. बीजक-1, संत कबीर, पृ. सं. 3
5. रामचरितमानस (बालकांड, प्रथम सोपान), संत तुलसीदास,       पृ. सं. 19
6. रामचरितमानस (बालकांड, प्रथम सोपान), संत तुलसीदास,       पृ. सं. 23
7. साहित्य-चिंतन, नरेश चतुर्वेदी, पृ. सं. 9
8. ‘मछलीघर‘, कवि विजयदेव नारायण साही, पृ. सं. 36
9. ‘मछलीघर‘, कवि विजयदेव नारायण साही, पृ. सं. 43

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