( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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दक्षिणी राजस्थान की लोक कलाओं में अभिव्यक्त लोक संस्कृति का उद्भव एवं विकास

    1 Author(s):  GEETA KUMARI

Vol -  10, Issue- 9 ,         Page(s) : 306 - 309  (2019 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

दक्षिणी राजस्थान में लोक कलाओं व लोक संस्कृति का उद्भव आदिम काल से हुआ है। प्राचीन काल से अपनी आदिम अवस्था में जिस समय मानव खेती करने लगा तथा उसकी कलाओं में स्थिरता आयी, उसी समय से लोक कला संस्कृति का जन्म हुआ। बहुत समय तक आदिम कला और लोक कला साथ-साथ चलती रही। लोक कला संस्कृति का उद्भव मानव के मन में उत्पन्न व लोकजन की सहज अभिव्यक्ति है। लोक कलाओं से अभिप्रायः उन प्रदर्शनकारी लोकधर्मी कला से है, जो ग्रामीण क्षेत्र, कस्बों, देहानों तथा शहरी क्षेत्र में प्रचलित है और आमतौर पर जो सामाजिक, रीति-रिवाजों, उत्सवों, तीज, त्यौहारों, शादी-ब्याह, मेलों पर लोक रगांकन सौन्दर्य बोध से सम्बन्धित है।

1. मोहनलाल जाट, दक्षिणी राजस्थान की जनजातीय चित्रकला, एपेक्स पब्लिशिंग हाउस, उदयपुर, जयपुर, 2014, पृ. 33
2. वही, पृ. 33
3. पूर्णाशंकर मीणा, लोक एवं जनजातीय कला परम्परा, ट्राईब, खण्ड़ (1-2), 2010, पृ. 54
4. वही, पृ. 55
5. मोहनलाल जाट, दक्षिणी राजस्थान की जनजातीय चित्रकला, एपेक्स पब्लिशिंग हाउस, उदयपुर, जयपुर, 2014, पृ. 32
6. वही, पृ. 33
7. डाॅ. महेन्द्र भानावत, लोक कलाओं का आजादीकरण, मुक्तक प्रकाशन, उदयपुर, 2002, पृ. 246
8. डाॅ. विश्वास मेहता, राजस्थान के लोक नृत्य, पश्चिमी क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, उदयपुर, 2004, पृ. 3
9. मोहनलाल जाट, दक्षिणी राजस्थान की जनजातीय चित्रकला, एपेक्स पब्लिशिंग हाउस, उदयपुर, जयपुर, 2014, पृ. 27
10. वही, पृ. 33
11. पूर्णाशंकर मीणा, लोक एवं जनजातीय कला परम्परा, ट्राईब, खण्ड़ (1-2), 2010, पृ. 54
12. डाॅ. अर्जुनसिंह शेखावत, संस्कृति की वसीयत, आदिवासी अकादमी, पाली, दिव्या प्रकाशन, 2009, पृ. 10
13. डाॅ. महेन्द्र भानावत, लोक कलाओं का आजादीकरण, मुक्तक प्रकाशन, उदयपुर, 2002, पृ. 202
14. वही, पृ. 203
15. डाॅ. महेन्द्र भानावत, लोक कलाओं का आजादीकरण, मुक्तक प्रकाशन, उदयपुर, 2002, पृ. 260

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