( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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तन्त्रशास्त्र में कुण्डलिनीयोग का निरुपण

    1 Author(s):  SEEMA BANSAL

Vol -  5, Issue- 8 ,         Page(s) : 427 - 434  (2014 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

महाशक्ति कुण्डलिनी और उसका जागरण, साधना जगत्‌ का एक गम्भीर रहस्य है। इसका स्वरूप वाणी का या भाषा का विषय नहीं बन सकता। यह पूर्णरूपेण साधना गम्य है, जिसकी अनुभूति सच्चे साधक या योगी को ही हो सकती है।

  1. भारतीय संस्कृति और साध्ना, भाग-1, पृ. 303
  2. कुटिलाघªी कुण्डलिनी भृजघªी शक्तिरीश्वरी।
  3. मुण्डल्यरून्ध्ती चैते शब्दा पर्यायवाचकाः।।
हठयोगप्रदीपिका, 3/105
  4. मूलाधरे तु या शक्तिर्भुजगाकाररूपिणी।
जीवात्मा परमेशानि तन्मध्ये वत्र्तते सदा।।
मातृकाभेदतन्त्रा
  5. तन्त्रासाध्नासार, पृ. 26
  6. शण्डिल्योपनिषद्, अध्याय-1, योग कुण्डलिनी उप. अ. 1
  7. तन्त्रासाध्नासार, पृú 27
  8. विरुपाक्षप×चाशिका, 1/2
  9. हठयोगप्रदीपिका, 3/1
  10. हठयोगप्रदीपिका, श्लोक 4
  11. हठयोगपद्रीपिका, 3/113
  12. षट्चक्रनिरूपणम् के श्लोक 4 का विवरण 
  13. हठयोगप्रदीपिका, 3/113
  14. षट्चक्रनिरूपणम्, श्लोक 9
  15. सौन्दर्यलहरी, श्लोक, 10
  16. षट्चक्रनिरूपणम्, श्लोक 10
  17. शारदातिलक, 1/53-57
  18. हठयोगप्रदीपिका, 4/10-11
  19. कन्दोध्र्व कुण्डली शक्तिः सुप्ता मोक्षाय योगिनीम्।
बन्ध्नाय च मूर्खाणां यस्तां वेत्ति स योगवित््।
कुण्डली कुटिलाकारा सर्पवत्परिकीर्तिता।
स शक्तिश्चालिता येन स मुक्तो नात्रा संशयः।।
हठयोगप्रदीपिका 3, 107-108
   20.(क) मूालधरे मूलविद्यां विद्युत्कोटिसमप्रभाम्।
   सूर्यकोटिप्रतीकाशां चन्द्रकोटिद्रवां प्रिये।।
   विसतन्तुस्वरूपां तां बिन्दुत्रिकलयां प्रिये।
   उफध्र्वशक्तिनियतने सहजेन वरानने।।
ज्ञानार्णाव तन्त्रा, 3/2, 3
(ख) शक्तिः कुण्डलिनी नाम विसतन्तुनिभा शुभा।
   मूलकन्दपफणाग्रेण दृष्ट्वा कमलकन्दवत्।।
   सौन्दर्यलहरी ;आनन्दलहरी, श्लोक 9 की अरुणामोदिनी टीका में उ(ृतद्ध
  21. मूलाधरे आत्मशक्ति। कुण्डली परदेवता।
शयिता भुजगाकारा सार्थत्रिवलयान्विता।
यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीवो पशुर्यथा।
ज्ञानं न जायते तावत् कोटियोगं समभ्यसेत्।।
घेरण्डसंहिता, 3/43-44
  22. कन्दोध्र्वे कुण्डलीशक्तिरष्टध कुण्डलाकृतिः।
ब्रह्मद्वारमुखं नित्यं मुखेनाच्छाद्य तिष्ठति।
कुण्डलिन्यां समुद्रभूता गायत्राीप्राणधरिणी।
प्राणविद्या महाविद्या यस्तां वेत्ति स वेदविद्।।
गोरक्षप(ति, 1/46-47
  23. ध्यायेत्कुण्डलिनी देवीं स्वयम्भूर्लिगसंस्थिताम्।
श्यामां सूक्ष्मां सृष्टिरूपां सृष्टिस्थितिलयात्मिकाम्।।
विश्वातीता ज्ञानरूपां चिन्तयेदूध्यर्ववाहिनीम्।
हुँकारवर्णसम्भूतां कुण्डली परदेवताम्।।
शाक्तानन्दतरिघõणी, 25

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