( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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भक्ति की रसवत्ता

    1 Author(s):  DR. SURESH KUMAR CHATURVEDI

Vol -  9, Issue- 4 ,         Page(s) : 71 - 76  (2018 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

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Abstract

रस भारतीय काव्यषास्त्र का प्राचीनतम सिद्धान्त है। इसके प्रवर्तक आचार्य भरतमुनि हैं। यद्यपि राजषेखर ने भरत को रूपक और नंदिकेष्वर को रस आदि निरूपक आचार्य माना हैः- रूपकः निरूपणीयं भरतः रसाधिकारिक नंदिकेष्वरः। -काव्य मीमांसा किंतु साक्ष्यों के अभाव में आचार्य भरत ही रससिद्धांत के प्रवर्तक सिद्ध होते हैं, क्योंकि काव्यषास्त्र के उपलब्ध प्राचीनतम भरतकृत नाट्यषास्त्र में सर्वप्रथम शास्त्रीय और व्यापक रूप में रूपकों और रस का विवेचन -विष्लेष्ण मिलता है। रस विषुद्ध रूप से काव्यषास्त्रीय शब्द है, किंतु वैदिक ग्रंथों में काव्यषास्त्र के जन्म से पूर्व रस शब्द अनेक अर्थों में व्यापकता के साथ प्रयुक्त हुआ है। अतः प्रयोग की दृष्टि से रस शब्द भारतीय वाङ्मय का प्राचीन शब्द है। रस सर्वप्रथम वैदिक ग्रंथ ऋग्वेद में पदार्थों के सारभूत द्रव, दूध, जल और सोम रस के लिए प्रयुक्त हुआ था,


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