( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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भारत में योग का विकास: पतंजलि काल के विशेष संदर्भ में

    2 Author(s):  SURBHI , DR. S. S. BAIS

Vol -  10, Issue- 11 ,         Page(s) : 11 - 17  (2019 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

योग की विभिन्न पद्धतियाँ एवं उपासना आदि के द्वारा मनुष्य अपने चित्त को निर्मल कर अन्तःचेतना को जागृत कर सकता है जो ज्ञान को वृद्धि तथा चरित्र निर्माण मेें उपयोगी है। यम, नियम आदि के पालन से क्षमा, दया, करूणा आदि के भाव स्वतः उत्पन्न हो जाते है। विभिन्न प्रकार के आसनों और प्राणायाम को अपनाकर मनुष्य स्वस्थ रह सकता है। धारणा, ध्यान और समाधि इन तीनों को संयम कहा गया है। हमारे ऋषियों ने योग के द्वारा ही ब्रह्म साक्षात्कार को प्राप्त किया। अतः योग साधना के द्वारा ही मानव का चतुर्दिक् विकास सम्भव है जिसके द्वारा सम्पूर्ण मानव समाज का कल्याण होगा।

   ऋग्वेद, 1/64, 39
   जैन, डाॅ. जगदीष चन्द्र जैन, भारतीय दर्षन एक नयी दृष्टि, चैखम्बा सुरभारती प्रकाषन, वाराणसी, 1984, पृ. 119
   सरस्वती, स्वामी सत्यानन्द मुक्ति के चार सोपान, श्री गोपी कृष्ण केजरीवाल, बिहार योग महाविद्यालय बिहार, 1994, पृ. 7
   पतंजलि योगसूत्र, 1/24 पर भोजवृत्तिं।
   आचार्य, पं. श्रीराम आचार्य, योगदर्षन, संस्कृति संस्थान, बरेली, 1996, पृ. 22, 27, 37,
   तज्जयात्प्रज्ञाजोकः, पतंजलि योगसूत्र, 3/5
   परमहंस निरजानन्द, योग दर्षन, श्रीपंचदषनाम परमहंस अलखबाडा पनियापगार, देवदार, बिहार, 1994, पृ. 440
   शर्मा, डाॅ. रामनाथ, भारतीय मनोविज्ञान, एटलांटिक पब्लिषर्स एण्ड डिस्ट्रीव्यूटर्स, नई दिल्ली, पृ. 92
   परमहंस निरजानन्द, योग दर्षन, श्रीपंचदषनाम परमहंस अलखबाडा पनियापगार, देवदार, बिहार, 1994, पृ. 440
   पतंजलि योगसूत्र, 1/30

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