( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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अथर्ववेदीय मन्त्रों में कृत्या एवं कृत्या परिहार विमर्श

    2 Author(s):  PAWAN KUMAR JOSHI ,DR. ASHUTOSH PAREEK

Vol -  10, Issue- 5 ,         Page(s) : 334 - 344  (2019 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

अथर्ववेदीय मन्त्रों में ‘‘कृत्या’’ का वर्णन प्राप्त होता है। ‘‘कृत्या’’ से तात्पर्य हिंसक क्रिया है जो कि शत्रुसेना के घात के लिए प्रयुक्त की जाती है। अथर्ववेद में कृत्या का विशेष स्वरूप, कृत्या का कार्य, कृत्या की संख्याएँ या भेद, कृत्या के आधार, कृत्या के पात्र, पर-कृत्या के अवरोध प्रतिकार आदि का वर्णन है। जनसाधारण ‘‘कृत्या’’ को मन्त्र अर्थात् मूठ, जादू-टोना आदि समझते हैं। तन्त्र शास्त्रों में शत्रु-सेना नाश के लिए कृत्या-प्रयोग का वर्णन है यहाँ तीन उक्ति विशेष ध्यान देने योग्य है- 1. ‘‘एताः सप्त युजन्ति’’ 2. ‘‘क्रूरकर्मसु’’ और 3. ‘‘मन्त्रिणः।’’ अथर्ववेदीय मन्त्रों के आधार पर प्राप्त विवेचन इनकी वैज्ञानिक पुष्टि करते हैं तथा अन्धविश्वास से मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। कृत्या प्रयोग के विभिन्न अच्छे-बुरे उद्देश्यों का भी वर्णन यहीं पर किया गया है। अथर्ववेद में स्पष्ट किया गया है कि सत्य की शक्ति सर्वोत्तम है। सत्य के सामने सभी घातक कृत्या-प्रयोग असफल हो जाते हैं। जो व्यक्ति निरपराध है उस पर कृत्या का प्रभाव नहीं होता है। अथर्ववेद में ब्रह्मौदन का वर्णन है। ब्रह्मौदन का अभिप्राय है- ’ज्ञान रूपी अन्न’। जो ज्ञानी है, ज्ञान रूपी अन्न का भोजन करता है, उस पर अभिचार कर्मों और शाप आदि का प्रभाव नहीं होता है। अथर्ववेद में वर्णन किया गया है कि यह जादू-टोने का काम मूर्खों का काम है। धीर व्यक्ति पर इसका प्रभाव नहीं होता है उस पर टोना असफल रहता है। मूर्ख कृत्या-प्रयोग के द्वारा पाप अपने सिर पर लेता है और धीर को पुण्य का भागी बनाता है। अतः कृत्या का प्रभाव नष्ट करने के लिये सरल उपाय है- ‘‘सत्य भाषण, सत्य व्यवहार, धैर्य, शांत प्रकृति और ज्ञानवान् होना।

1. उड्डीशतन्त्र - 44-46
2. कौटिल्यार्थ शास्त्र प्रकरण (150-152)
3. अथर्व. 8.5.5
4. अथर्व. 14.34.4 एवं अथर्व. 2.4.6 एवं अथर्व. 2.5.2
5. ‘‘उन्मुच्चन्ती र्विवरुणा उग्रा या विषदूषणिः। अथो बलासनाशनीः कृत्यादूषणीष्च यास्ता इहायन्त्वोषधीः।।’’ - (अथर्व. 8.7.10)
6. ‘अमा कृत्वा पाम्पानं यस्तेनान्यं जिघांसति। अश्मानस्तस्यां दग्धायां बहुलाः फट्करिक्रति।।’ (अथर्व. 4.19.3)
7. ‘‘यो देवाः कृत्यां कृत्या.’’ इस पूर्व मन्त्र में ‘कृत्या’ का वर्णन है उसका विशेषण यहां यह ‘तस्यां दग्धायाम् है।
8. ‘‘असद् भूम्याः समभवत् तद् द्यामेति महद् व्यचः। तद् वै ततो विधूपायत् प्रत्यक् कर्तारमृच्छतुः।।’’ (अथर्व 4.19.6)
9. ‘‘याः कृत्या आग्रिसीर्याः कृत्या आसुरीर्याः कृत्याः स्वयंकृता या उचान्येभिराभृताः। उभयीस्ताः परायन्तु परावतोनवतिं नाव्या अति।।’’ - (अथर्व. 8.5.9)

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